मंगलवार, 23 नवंबर 2010


शाम
होने को है
शाम होने को है
लाल सूरज समंदर मे सोने को है
और उसके परे
कुछ परिंदे कतारें बनाए
उन्हीं जंगलों को चले
जिनके पेड़ों की शाखों पे हैं घोंसले
ये परिंदे वहीं लौटकर जाएँगे
और सो जाएँगे
शाम होने को है
लाल सूरज ...

हम ही हैरान हैं
इन मकानों के जंगल में अपना कोई भी ठिकाना नहीं
शाम होने को है
हम कहां जाएँगे
शाम होने को है
लाल सूरज ...
शाम होने को है
हम कहां जाएँगे
जाबेद अख्तर

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

(सेसी कान्त ससी द्वारा रचित)
गाँधी एक बिचार है !
अहिंसा का ब्य्ब्हर है !!
ना गोंडसे की गोली भी,
गाँधी को मार पाई है !
जय जय कार गाँधी जी की,
नारों में लगी है सदा !
जिसके बल पे नेताओ ने,
कुर्सिय ही पाई है !!
गाँधी जी को गाली देने बाले,
खासो-आम सुनो !
आज तुम अखबारों की,
सुर्खियो में छा जाओ गे,
गाँधी तो अमर इतिहास में रहेंगे सदा !
कल तुम रद्दी अखेबरो का ढेर बन जाओगे !!

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

चाँद सितारे मेरे साथ में रहे !
जबतक तुम्हारे हात मरे हात में रहे !!
साखों से टूट जाए वो पत्ते नहीं है हम !
हवाओ से कहदो ओकात में रहें!!

शनिवार, 14 अगस्त 2010

लहराएगा अमर तिरंगा इज्जत और इमान से !
टकरा लेंगे हम मत्बले हर आंधी तूफान से !!

खून पसीना देकर हमने इसका रंग सजाया है !
टकराया है जो भी हमसे आखिर में पछताया है !!
वीरन्द्र "कनक" चोलकर

रविवार, 8 अगस्त 2010

ख़ुमार बाराबंकवी

एक पल में एक सदी का मज़ा हमसे पूछिए
दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिए

भूले हैं रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में ख़ुदकुशी का मज़ा हमसे पूछिए

आगाज़े-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए
अंजामे-आशिक़ी का मज़ा हमसे पूछिए

जलते दीयों में जलते घरों जैसी लौ कहाँ
सरकार रोशनी का मज़ा हमसे पूछिए

वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हमसे पूछिए

हँसने का शौक़ हमको भी था आप की तरह
हँसिए मगर हँसी का मज़ा हमसे पूछिए

हम तौबा करके मर गए क़ब्ले-अज़ल "ख़ुमार"
तौहीन-ए-मयकशी का मज़ा हमसे पूछिये

मंगलवार, 23 मार्च 2010

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता
‘इब्ने बतूता पहन के जूता,
निकल पड़े तूफान में,
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को,
कभी कान को,
मलते इब्नेबतूता,
इस बीच में निकल पड़ा,
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका,
जा पहुँचा जापान में,
इब्ने बतूता खड़े रह गए,
मोची की दुकान में।’’

सोमवार, 22 मार्च 2010

विष्णु सक्स्सेना द्वारा

थाल पूजा का लेकर चले आइये , मन्दिरों की बनावट सा घर है मेरा।

आरती बन के गूँजो दिशाओं में तुम और पावन सा कर दो शहर ये मेरा।


दिल की धडकन के स्वर जब तुम्हारे हुये


बाँसुरी को चुराने से क्या फायदा,

बिन बुलाये ही हम पास बैठे यहाँ

फिर ये पायल बजाने से क्या फायदा,

डगमगाते डगों से न नापो डगर , देखिये बहुत नाज़ुक जिगर है मेरा।


झील सा मेरा मन एक हलचल भरी

नाव जीवन की इसमें बहा दीजिये,

घर के गमलों में जो नागफनियां लगीं

फेंकिये रात रानी लगा लीजिये,

जुगनुओ तुम दिखा दो मुझे रास्ता, रात काली है लम्बा सफर है मेरा।


जो भी कहना है कह दीजिये बे हिचक

उँगलियों से न यूँ उँगलियाँ मोडिये,

तुम हो कोमल सुकोमल तुम्हारा हृदय

पत्थरों को न यूँ कांच से तोडिये,

कल थे हम तुम जो अब हमसफर बन गये, आइये आइये घर इधर है मेरा।

सोमवार, 1 मार्च 2010


विष्णु सक्सेना

रेत पर नाम लिखने से क्या फायदा, एक आई लहर कुछ बचेगा नहीं।

तुमने पत्थर सा दिल हमको कह तो दिया पत्थरों पर लिखोगे मिटेगा नहीं।

मैं तो पतझर था फिर क्यूँ निमंत्रण दिया

ऋतु बसंती को तन पर लपेटे हुये,

आस मन में लिये प्यास तन में लिये

कब शरद आयी पल्लू समेटे हुये,

तुमने फेरीं निगाहें अँधेरा हुआ, ऐसा लगता है सूरज उगेगा नहीं।

मैं तो होली मना लूँगा सच मानिये

तुम दिवाली बनोगी ये आभास दो,

मैं तुम्हें सौंप दूँगा तुम्हारी धरा

तुम मुझे मेरे पँखों को आकाश दो,

उँगलियों पर दुपट्टा लपेटो न तुम, यूँ करोगे तो दिल चुप रहेगा नहीं।

आँख खोली तो तुम रुक्मिणी सी लगी

बन्द की आँख तो राधिका तुम लगीं,

जब भी सोचा तुम्हें शांत एकांत में

मीरा बाई सी एक साधिका तुम लगी

कृष्ण की बाँसुरी पर भरोसा रखो, मन कहीं भी रहे पर डिगेगा नहीं।