मंगलवार, 23 मार्च 2010

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता
‘इब्ने बतूता पहन के जूता,
निकल पड़े तूफान में,
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को,
कभी कान को,
मलते इब्नेबतूता,
इस बीच में निकल पड़ा,
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका,
जा पहुँचा जापान में,
इब्ने बतूता खड़े रह गए,
मोची की दुकान में।’’

कोई टिप्पणी नहीं: