बुधवार, 15 जून 2011



हमारे शास्त्रों ने विद्यादान को महादान की श्रेणी में रखा है I सही भी है, किन्तु यदि आधुनिक युग के परिपेक्ष्य में दृष्टिपात करें तो कदाचित इस बात पर बहुमत सहमत होगा कि विद्यादान के साथ साथ यदि इसमें नेत्रदान को भी जोड़ दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी I मेरा तात्पर्य यहाँ शास्त्रों को गलत सिद्ध करने से नहीं है I उस समय शायद विज्ञानं का स्तर इतना ऊँचा था कि आम व्यक्ति को नेत्र दान की आवशयकता ही नहीं थी I इसका पुष्ट प्रमाण है कि भगवन कृष्ण ने पहले संजय को दिव्य दृष्टि दी और फिर अर्जुन को I वे तो भगवन के अपने थे इसलिए यदि कहीं आई बैंक होगा भी तो उन्हें प्राथमिकता के आधार पर नेत्र मिल गए होंगे, किन्तु मेरे देश के उन लाखों करोड़ों लोगो का क्या जो फूलों कि सुगंध तो ले सकते है उनकी कोमल छुवन को अनुभव कर सकते हैं परन्तु उसकी सुन्दरता को निहार नहीं सकते ? उनका क्या कि जब वसंत अपने यौवन पर होता है, झर झर झरने बहते हैं ,गगनचुम्बी पर्वतशिखर हिमाच्छादित होते है ,समुद्र की लहरें अपने तटों के साथ अठखेलियाँ करती हैं ,प्रकृति सोलह श्रृंगार करती है ये सब बातें वे सुन तो सकते है परन्तु देख नहीं सकते क्या एक उत्तरदायी नागरिक होने के नाते इस और हमारा कोई कर्तव्य नहीं ? अवश्य है और इसका सबसे अच्छा उपाय है नेत्रदान I