रविवार, 24 मई 2009

दुष्यंत कुमार



इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

2 टिप्‍पणियां:

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

चिट्ठाजगत की यह खासियत है कि
जिस चिट्ठे पर
अद्वितीय रचनाएँ लगी होती हैं,
उस चिट्ठे पर जाना
अधिकांश चिट्ठाकार
उचित नहीं समझते!
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क्या इसे समझ की बात ही समझा जाए?
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वीनस केसरी ने कहा…

एक अच्छी गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद

वीनस केसरी